अपना दर्द बेचकर कतिपय
खुशियाँ पाईं तो
मेरा अपनापन ही मुझसे
दूर हो गया है
रचना का भूगोल अचानक
आपा खो बैठा
चिंतन की मुद्रा का स्वर
विद्रोही हो बैठा
शब्द चेतना की निगाह से
यह अहसास हुआ
मेरा अंतर्मन स्वभाव से
क्रूर हो गया है
भावों की शालीन अदा का
दुख जीवंत हुआ
भोली बोली की मिठास ने
दिल को नहीं छुआ
करने लगी साधना भी
कुछ उड़ी-उड़ी बातें
शायद मुझसे कुछ अपराध
जरूर हो गया है
शोक धुनों पर लगी थिरकने
भावों की लड़ियाँ
खंड-खंड हो गईं टूटकर
छंदों की कड़ियाँ
यह कहकर प्रेरणा बिंदु ने
मुझको डपट दिया
पता नहीं है किस मद में
तू चूर हो गया है।